Thursday, November 12, 2015

दिवाली पर नहीं देखा जाता ब्राह्मण का मूह! देखे जाने पर निकाला जाता है खून. प्रतापगढ़ के गाँवों की पुरानी परंपरा!






हिन्दू धर्म में ब्राह्मणों को एक उच्च स्थान प्राप्त है. ब्राहमणों को पुरुष प्रधान माना जाता है. समाज के सभी वर्गों के मांगलिक आदि कार्य ब्राह्मण ही संपन्न कराते हैं. लेकिन आज दिवाली पर ब्राह्मणों को अपना मुंह छिपाना पड़ता है. उस दिन एक जाति-समाज के लोग ब्राह्मणों की शक्ल तक देखना पसंद नहीं करते हैं. मामला है प्रतापगढ़ से . देखिए खास रिपोर्ट!

प्रतापगढ़ जिले के बारावरदा समेत छोटे-बड़े करीब 15 गांवों में गुर्जर समाज में ब्राहमणों का मुंह नहीं देखने की परंपरा है.. यहाँ दीपावली के दिन ब्राह्मणों की हालत दयनीय हो जाती है. उन्हें अपने घर में परदे में या दरवाजा बंद करके रहना पड़ता है...

प्रतापगढ़ जिले के इन गांवों में हर साल दीपावली के दिन गुर्जर जाति के लोग ब्राहमणों का मुंह नहीं देखते हैं. जब पूरा देश बड़े हर्ष और उल्लास के साथ दीपावली पर्व मनाता है, तो इन गांवों के ब्राहमणों को घर से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है, घर में बंद रहना पड़ता है. यहाँ तक कि बच्चों को भी घर से बाहर निकलने नहीं दिया जाता है.

दीपावली पर जब भी किसी गुर्जर जाति के महिला-पुरुष को ब्राहमण का मुह दिख जाता है, तो उस ब्राह्मण के शरीर के किसी अंग से थोड़ा-सा खून निकालकर उससे तिलक लगाकर प्रायश्चित किया जाता हैं. कभी-कभी आपस में टकराव भी हो जाता है। पिछले वर्ष दीपावली के दिन बारावरदा गाँव में एक ब्राह्मण ने दीपावली के दिन अपनी आटा चक्की की दूकान खोल दी. गुर्जर समाज के लोग वहां से निकले तो उन्हें अनाज पीसते ब्राह्मण का मुंह दिख गया. बस फिर क्या था, ब्राह्मण को उसकी दूकान से बाहर निकालकर पिटाई कर दी. यहाँ आज भी गलती होने पर पिटाई की परंपरा है. ऐसा भी माना जाता है कि पिटाई ना कर वे प्रथा का विरोध करेंगे. ऐसे में पिटाई करनी जरुरी ही मानी जाती है. यह तो गनीमत है कि प्रथा में परिवर्तन आया है, पहले तो मूह देखने पर सर फोड़ने तक का रिवाज़ था.

पहले यह परम्परा दीपावली पर सात दिन तक चलती थी, लेकिन बदलते समय के साथ गुर्जर समाज ने ब्राह्मणों को होने वाली परेशानियों को महसूस किया है और ब्राह्मणों का मुंह न देखने की सैकड़ों बरसों से चली आ रही परम्परा को सात दिन के बजाय दो दिन कर दिया है. दीपावली के दिन गुर्जर समाज के घर-घर में साबूदाने की खीर बनती है. मसला सिर्फ एक गाँव का नहीं है, जिले भर के गाँवों का है. - जिस गाँव में गुर्जर समाज के घर कम हैं और ब्राह्मणों के ज्यादा, वहां गुर्जर घर में ही पूजापाठ करते है क्योकि घर से बाहर निकलने पर ब्राहमण की शक्ल दिख जाने का डर बना रहता है. जहां गुर्जर की आबादी अधिक है, वहां गुर्जर अपने घर से बाहर नदी तालाब या कुए पर पूजापाठ करते हैं. और अपने आराध्य देव को भोग लगाते हैं. गुर्जरों का मानना है कि दीपावली के दिन ब्राह्मण की शक्ल देख ले तो कोई भी नुकसान हो सकता है. मवेशी मर सकते हैं, घर में बीमारी आ सकती है या काम-धंधा चौपट हो सकता है. पूजापाठ के बाद ब्राह्मण का चेहरा दिख जाए तो कोई हर्ज नहीं.

कहा जाता है कि दीपावली के दिन ब्राह्मणों ने गुर्जर समाज के आराध्य देव देवनारायण को मरवाने की कोशिश की थी. देवनारायण गुर्जरों के आराध्य देव है. उस दिन के बाद से गुर्जर समाज के लोगों को शाप है कि दीपावली के दिन से तीन दिन तक वे ब्राहमणों का मुंह नहीं देखें, वरना अनर्थ हो जाएगा.. देवनारायण जी गुर्जरों को कहा कि वे दिवाली से सात दिन तक ब्राह्मणों का मूह ना देखें, गुर्जरों ने आग्रह किया और कहा कि "ब्राह्मणों का मूह नहीं देखेंगे तो कैसे दिवाली मानेगी"... ऐसे में उन्होंने इस समयावधि को घटा कर तीन दिन किया. वक्त के साथ-साथ यह प्रथा एक दिन, यानि दिवाली के दिन तक ही सिमट कर रह गई...

ब्राह्मणों के बिना पूजा नहीं होती, विधि-विधान नहीं होते, लेकिन यहाँ बिना ब्राह्मणों के ही दिवाली मनाई जाती है. इस प्रथा की वजह से ब्राह्मणों का घर से निकलना मुश्किल हो जाता है और उन्हें घर में ही रहकर दिवाली मनानी होती है. एक पुरानी रीत को निभाते हुए गुर्जर ब्राह्मणों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, खून निकालते हैं, मारपीट करते हैं...! दिवाली का दिन मिलने-जुलने का दिन है, आज के दिन सभी भाईचारे के साथ मिलते हैं, दिवाली की शुभकामना देते हैं, लेकिन आज भी ऐसी जगह हैं, जहाँ इस त्यौहार को खून निकालकर या मार-पीट कर मनाया जा रहा है.

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